सो अपने हाथ से दीं भी गया है दुनिया भी
कि इक सिरे को पकड़ते तो दूसरा जाता
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दिल-ए-मुज़्तर वफ़ा के बाब में ये जल्द-बाज़ी क्या
हर एक गाम उलझता हूँ अपने आप से मैं
वो शोर होता है ख़्वाबों में 'आफ़्ताब' 'हुसैन'
कभी जो रास्ता हमवार करने लगता हूँ
गुज़रते वक़्त की कोई निशानी साथ रखता हूँ
क़दम क़दम पे किसी इम्तिहाँ की ज़द में है
किसी तरह तो घटे दिल की बे-क़रारी भी
मक़ाम-ए-शौक़ से आगे भी इक रस्ता निकलता है
दिल भी आप को भूल चुका है
पते की बात भी मुँह से निकल ही जाती है
गए मंज़रों से ये क्या उड़ा है निगाह में
कब तक साथ निभाता आख़िर