तिरे बदन के गुलिस्ताँ की याद आती है
ख़ुद अपनी ज़ात के सहरा को पार करते हुए
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किसी नज़र ने मुझे जाम पर लगाया हुआ है
मक़ाम-ए-शौक़ से आगे भी इक रस्ता निकलता है
दे रहे हैं जिस को तोपों की सलामी आदमी
ज़रा जो फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारगी मयस्सर हो
अभी दिलों की तनाबों में सख़्तियाँ हैं बहुत
लोग किस किस तरह से ज़िंदा हैं
जो कुछ निगाह में है हक़ीक़त में वो नहीं
अज़ाब-ए-बर्क़-ओ-बाराँ था अँधेरी रात थी
चलो कहीं पे तअल्लुक़ की कोई शक्ल तो हो
हर फूल है हवाओं के रुख़ पर खिला हुआ
हुस्न वालों में कोई ऐसा हो
निगाह के लिए इक ख़्वाब भी ग़नीमत है