लोग किस किस तरह से ज़िंदा हैं
हमें मरने का भी सलीक़ा नहीं
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Habib Jalib
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Gulzar
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Anwar Masood
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कुछ और तरह की मुश्किल में डालने के लिए
असास-ए-जिस्म उठाऊँ नए सिरे से मगर
गए ज़मानों की दर्द कजलाई भूली बिसरी किताब पढ़ कर
वो सर से पाँव तक है ग़ज़ब से भरा हुआ
तिरे बदन के गुलिस्ताँ की याद आती है
वक़्त की वहशी हवा क्या क्या उड़ा कर ले गई
करता कुछ और है वो दिखाता कुछ और है
अपना दीवाना बना कर ले जाए
ये सोच कर भी तो उस से निबाह हो न सका
निगाह के लिए इक ख़्वाब भी ग़नीमत है
कमी रखता हूँ अपने काम की तकमील में
किसी नज़र ने मुझे जाम पर लगाया हुआ है