ये सोच कर भी तो उस से निबाह हो न सका
किसी से हो भी सका है मिरा गुज़ारा कहीं
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गए ज़मानों की दर्द कजलाई भूली बिसरी किताब पढ़ कर
धूप जब ढल गई तो साया नहीं
कुछ रब्त-ए-ख़ास अस्ल का ज़ाहिर के साथ है
पते की बात भी मुँह से निकल ही जाती है
वक़्त की वहशी हवा क्या क्या उड़ा कर ले गई
अपना दीवाना बना कर ले जाए
कुछ और तरह की मुश्किल में डालने के लिए
दिल-ए-मुज़्तर वफ़ा के बाब में ये जल्द-बाज़ी क्या
जब सफ़र से लौट कर आने की तय्यारी हुई
ये दिल की राह चमकती थी आइने की तरह
अभी है हुस्न में हुस्न-ए-नज़र की कार-फ़रमाई
गुज़रते वक़्त की कोई निशानी साथ रखता हूँ