ये दिल की राह चमकती थी आइने की तरह
गुज़र गया वो उसे भी ग़ुबार करते हुए
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एक मंज़र है कि आँखों से सरकता ही नहीं
कुछ रब्त-ए-ख़ास अस्ल का ज़ाहिर के साथ है
गुज़रते वक़्त की कोई निशानी साथ रखता हूँ
सो अपने हाथ से दीं भी गया है दुनिया भी
देखे कोई तअल्लुक़-ए-ख़ातिर के रंग भी
घड़ी घड़ी उसे रोको घड़ी घड़ी समझाओ
करता कुछ और है वो दिखाता कुछ और है
किन मंज़रों में मुझ को महकना था 'आफ़्ताब'
फ़िराक़ मौसम की चिलमनों से विसाल लम्हे चमक उठेंगे
वो यूँ मिला था कि जैसे कभी न बिछड़ेगा
पते की बात भी मुँह से निकल ही जाती है
हर एक गाम उलझता हूँ अपने आप से मैं