एक मंज़र है कि आँखों से सरकता ही नहीं
एक साअ'त है कि सारी उम्र पर तारी हुई
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हाल हमारा पूछने वाले
दे रहे हैं जिस को तोपों की सलामी आदमी
कमी रखता हूँ अपने काम की तकमील में
चलो कहीं पे तअल्लुक़ की कोई शक्ल तो हो
क़दम क़दम पे किसी इम्तिहाँ की ज़द में है
अभी दिलों की तनाबों में सख़्तियाँ हैं बहुत
इस अँधेरे में जो थोड़ी रौशनी मौजूद है
अभी है हुस्न में हुस्न-ए-नज़र की कार-फ़रमाई
कब तक साथ निभाता आख़िर
लोग किस किस तरह से ज़िंदा हैं
दिल-ए-मुज़्तर वफ़ा के बाब में ये जल्द-बाज़ी क्या
कहाँ किसी पे ये एहसान करने वाला हूँ