कब तक साथ निभाता आख़िर
वो भी दुनिया में रहता है
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गए मंज़रों से ये क्या उड़ा है निगाह में
हुस्न वालों में कोई ऐसा हो
तिरे बदन के गुलिस्ताँ की याद आती है
मुनाफ़िक़त का निसाब पढ़ कर मोहब्बतों की किताब लिखना
चलो कहीं पे तअल्लुक़ की कोई शक्ल तो हो
वक़्त की वहशी हवा क्या क्या उड़ा कर ले गई
कहाँ किसी पे ये एहसान करने वाला हूँ
अज़ाब-ए-बर्क़-ओ-बाराँ था अँधेरी रात थी
अभी दिलों की तनाबों में सख़्तियाँ हैं बहुत
इस अँधेरे में जो थोड़ी रौशनी मौजूद है
अपना दीवाना बना कर ले जाए
अना को बाँधता रहता हूँ अपने शे'रों में