कब भटक जाए 'आफ़्ताब' हुसैन
आदमी का कोई भरोसा नहीं
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एक मंज़र है कि आँखों से सरकता ही नहीं
मुनाफ़िक़त का निसाब पढ़ कर मोहब्बतों की किताब लिखना
मैं सोचता हूँ अगर इस तरफ़ वो आ जाता
मिलता है आदमी ही मुझे हर मक़ाम पर
दिलों के बाब में क्या दख़्ल 'आफ़्ताब-हुसैन'
गए ज़मानों की दर्द कजलाई भूली बिसरी किताब पढ़ कर
कभी जो रास्ता हमवार करने लगता हूँ
चलो कहीं पे तअल्लुक़ की कोई शक्ल तो हो
सो अपने हाथ से दीं भी गया है दुनिया भी
धूप जब ढल गई तो साया नहीं
क्या ख़बर मेरे ही सीने में पड़ी सोती हो