गए मंज़रों से ये क्या उड़ा है निगाह में
कोई अक्स है कि ग़ुबार सा है निगाह में
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हाल हमारा पूछने वाले
पते की बात भी मुँह से निकल ही जाती है
मुनाफ़िक़त का निसाब पढ़ कर मोहब्बतों की किताब लिखना
फ़िराक़ मौसम की चिलमनों से विसाल लम्हे चमक उठेंगे
तुम्हारे बाद रहा क्या है देखने के लिए
कब भटक जाए 'आफ़्ताब' हुसैन
खिला रहेगा किसी याद के जज़ीरे पर
अना को बाँधता रहता हूँ अपने शे'रों में
कब तक साथ निभाता आख़िर
हर फूल है हवाओं के रुख़ पर खिला हुआ
करता कुछ और है वो दिखाता कुछ और है
वो सर से पाँव तक है ग़ज़ब से भरा हुआ