हर एक गाम उलझता हूँ अपने आप से मैं
वो तीर हूँ जो ख़ुद अपनी कमाँ की ज़द में है
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ज़रा जो फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारगी मयस्सर हो
कुछ रब्त-ए-ख़ास अस्ल का ज़ाहिर के साथ है
दिलों के बाब में क्या दख़्ल 'आफ़्ताब-हुसैन'
अना को बाँधता रहता हूँ अपने शे'रों में
कुछ और तरह की मुश्किल में डालने के लिए
दे रहे हैं जिस को तोपों की सलामी आदमी
दिल भी आप को भूल चुका है
ये सोच कर भी तो उस से निबाह हो न सका
किन मंज़रों में मुझ को महकना था 'आफ़्ताब'
ज़रा सी देर को चमका था वो सितारा कहीं
दिल-ए-मुज़्तर वफ़ा के बाब में ये जल्द-बाज़ी क्या
अस्ल हालत का बयाँ ज़ाहिर के साँचों में नहीं