असास-ए-जिस्म उठाऊँ नए सिरे से मगर
ये सोचता हूँ कि मिट्टी मिरी ख़राब तो हो
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अस्ल हालत का बयाँ ज़ाहिर के साँचों में नहीं
हुस्न वालों में कोई ऐसा हो
हर एक गाम उलझता हूँ अपने आप से मैं
क़दम क़दम पे किसी इम्तिहाँ की ज़द में है
चलो कहीं पे तअल्लुक़ की कोई शक्ल तो हो
देखे कोई तअल्लुक़-ए-ख़ातिर के रंग भी
हर फूल है हवाओं के रुख़ पर खिला हुआ
अज़ाब-ए-बर्क़-ओ-बाराँ था अँधेरी रात थी
ये दिल की राह चमकती थी आइने की तरह
अभी है हुस्न में हुस्न-ए-नज़र की कार-फ़रमाई
लोग किस किस तरह से ज़िंदा हैं
हाल हमारा पूछने वाले