किसी तरह तो घटे दिल की बे-क़रारी भी
चलो वो चश्म नहीं कम से कम शराब तो हो
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Habib Jalib
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पते की बात भी मुँह से निकल ही जाती है
फ़सील-ए-शहर-ए-तमन्ना में दर बनाते हुए
तुम्हारे बाद रहा क्या है देखने के लिए
वक़्त की वहशी हवा क्या क्या उड़ा कर ले गई
कब तक साथ निभाता आख़िर
बस एक बात की उस को ख़बर ज़रूरी है
ज़रा जो फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारगी मयस्सर हो
असास-ए-जिस्म उठाऊँ नए सिरे से मगर
करता कुछ और है वो दिखाता कुछ और है
कहाँ किसी पे ये एहसान करने वाला हूँ
किसी नज़र ने मुझे जाम पर लगाया हुआ है
अज़ाब-ए-बर्क़-ओ-बाराँ था अँधेरी रात थी