राह तकते जिस्म की मज्लिस में सदियाँ हो गईं
झाँक कर अंधे कुएँ में अब तो कोई बोल दे
Javed Akhtar
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मुदावा
मैं जंगलों में दरिंदों के साथ रहता रहा
वापसी
मेला
जो दिल में है वही बाहर दिखाई देता है
जो साथ लाए थे घर से वो खो गया है कहीं
कोई अच्छी सी ग़ज़ल कानों में मेरे घोल दे
तूफ़ान की ज़द में थे ख़यालों के सफ़ीने
आख़िरी सफ़र
गुज़रते लम्हों का मातम
सभी हैं अपने मगर अजनबी से लगते हैं