घिसते घिसते पाँव में ज़ंजीर आधी रह गई
आधी छुटने की हुई तदबीर आधी रह गई
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तेरे आलम का यार क्या कहना
आलम में हरे होंगे अश्जार जो मैं रोया
दुखा देते हो तुम दिल को तो बढ़ जाता है दिल मेरा
जश्न था ऐश-ओ-तरब की इंतिहा थी मैं न था
इश्क़ हो जाएगा मेरी दास्तान-ए-इश्क़ से
दो वक़्त निकलने लगी लैला की सवारी
सन्नाटे का आलम क़ब्र में है है ख़्वाब-ए-अदम आराम नहीं
हुआ है तौर-ए-बर्बादी जो बे-दस्तूर पहलू में
हुए ऐसे ब-दिल तिरे शेफ़्ता हम दिल-ओ-जाँ को हमेशा निसार किया
दरपेश अजल है गंज-ए-शहीदाँ ख़रिदिए
आग लगा दी पहले गुलों ने बाग़ में वो शादाबी की
चाहिएँ मुझ को नहीं ज़र्रीं क़फ़स की पुतलियाँ