दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए
याद-ए-जानाँ से कोई शाम न ख़ाली जाए
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क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उस से
ये बे-दिली है तो कश्ती से यार क्या उतरें
'फ़राज़' तेरे जुनूँ का ख़याल है वर्ना
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
मुंतज़िर किस का हूँ टूटी हुई दहलीज़ पे मैं
यूँही मर मर के जिएँ वक़्त गुज़ारे जाएँ
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
न हरीफ़-ए-जाँ न शरीक-ए-ग़म शब-ए-इंतिज़ार कोई तो हो
कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी जैसे
ये किन नज़रों से तू ने आज देखा
अब दिल की तमन्ना है तो ऐ काश यही हो
रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं