हुजूम ऐसा कि राहें नज़र नहीं आतीं
नसीब ऐसा कि अब तक तो क़ाफ़िला न हुआ
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देखो ये किसी और की आँखें हैं कि मेरी
कल हम ने बज़्म-ए-यार में क्या क्या शराब पी
इस से बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़'
जब तिरी याद के जुगनू चमके
मेरी ख़ातिर न सही अपनी अना की ख़ातिर
वो अपने ज़ोम में था बे-ख़बर रहा मुझ से
हमदर्द
ज़िंदगी पर इस से बढ़ कर तंज़ क्या होगा 'फ़राज़'
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो
फ़क़ीह-ए-शहर की मज्लिस से कुछ भला न हुआ
जान से इश्क़ और जहाँ से गुरेज़