हम अगर मंज़िलें न बन पाए
मंज़िलों तक का रास्ता हो जाएँ
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चाक-पैराहनी-ए-गुल को सबा जानती है
मैं ख़ुद को भूल चुका था मगर जहाँ वाले
कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ
तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूँ
यूँ तो पहले भी हुए उस से कई बार जुदा
सितम तो ये है कि ज़ालिम सुख़न-शनास नहीं
ढूँड उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
वो जिस घमंड से बिछड़ा गिला तो इस का है
अब तिरे ज़िक्र पे हम बात बदल देते हैं
तख़्लीक़
आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो