उस से मिलना और बिछड़ना देर तक फिर सोचना
कितनी दुश्वारी के साथ आए थे आसानी में हम
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ये शुग़्ल-ए-ज़बानी भी बे-सर्फ़ा नहीं आख़िर
गुम-शुदा मैं हूँ तो हर सम्त भी गुम है मुझ में
आया ही नहीं कोई बोझ अपना उठाने को
वो इक सवाल-ए-सितारा कि आसमान में था
उस से रिश्ता है अभी तक मेरा
किसी से क्या कहें सुनें अगर ग़ुबार हो गए
रक़्स-ए-शरर क्या अब के वहशत-नाक हुआ
लोग कहते थे वो मौसम ही नहीं आने का
शोर हरीम-ए-ज़ात में आख़िर उट्ठा क्यूँ
सवाद-ए-शाम न रंग-ए-सहर को देखते हैं
उठिए कि फिर ये मौक़ा हाथों से जा रहेगा
कहाँ किसी को थी फ़ुर्सत फ़ुज़ूल बातों की