शोर हरीम-ए-ज़ात में आख़िर उट्ठा क्यूँ
अंदर देखा जाए कि बाहर देखा जाए
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यूँ ही कब तक ऊपर ऊपर देखा जाए
सवाद-ए-शाम न रंग-ए-सहर को देखते हैं
सर-ब-सर पैकर-ए-इज़हार में लाता है मुझे
नहीं आसमाँ तिरी चाल में नहीं आऊँगा
किसी का अक्स-ए-बदन था न वो शरारा था
अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं करना
चढ़ा हुआ था वो दरिया अगर हमारे लिए
उस से रिश्ता है अभी तक मेरा
गुम-शुदा मैं हूँ तो हर सम्त भी गुम है मुझ में
किसी से क्या कहें सुनें अगर ग़ुबार हो गए
दामन को ज़रा झटक तो देखो