नहीं आसमाँ तिरी चाल में नहीं आऊँगा
मैं पलट के अब किसी हाल में नहीं आऊँगा
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दामन को ज़रा झटक तो देखो
अपना सोचा हुआ अगर हो जाए
ये कैसा ख़ूँ है कि बह रहा है न जम रहा है
उसे भुलाया तो अपना ख़याल भी न रहा
छोड़ो अब उस चराग़ का चर्चा बहुत हुआ
सर-ब-सर पैकर-ए-इज़हार में लाता है मुझे
उधर से आए तो फिर लौट कर नहीं गए हम
ज़ख़्म खाना ही जब मुक़द्दर हो
आया ही नहीं कोई बोझ अपना उठाने को
ज़ख़्मों को अश्क-ए-ख़ूँ से सैराब कर रहा हूँ
रक़्स-ए-शरर क्या अब के वहशत-नाक हुआ
मैं बंद आँखों से कब तलक ये ग़ुबार देखूँ