दामन को ज़रा झटक तो देखो
दुनिया है कुछ और शय नहीं है
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उठिए कि फिर ये मौक़ा हाथों से जा रहेगा
यहीं गुम हुआ था कई बार मैं
कहाँ किसी को थी फ़ुर्सत फ़ुज़ूल बातों की
बिछड़ के ख़ाक हुए हम तो क्या ज़रा देखो
अंधेरा सा क्या था उबलता हुआ
उसे भुलाया तो अपना ख़याल भी न रहा
उस से रिश्ता है अभी तक मेरा
शोर हरीम-ए-ज़ात में आख़िर उट्ठा क्यूँ
ये जो धुआँ धुआँ सा है दश्त-ए-गुमाँ के आस-पास
उठ जा कि अब ये मौक़ा हाथों से जा रहेगा
सुना है शहर का नक़्शा बदल गया 'महफ़ूज़'