सुना है शहर का नक़्शा बदल गया 'महफ़ूज़'
तो चल के हम भी ज़रा अपने घर को देखते हैं
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सर-ब-सर पैकर-ए-इज़हार में लाता है मुझे
गुम-शुदा मैं हूँ तो हर सम्त भी गुम है मुझ में
बदन-सराब न दरिया-ए-जाँ से मिलता है
फेंकते संग-ए-सदा दरिया-ए-वीरानी में हम
मिरी इब्तिदा मिरी इंतिहा कहीं और है
हम को आवारगी किस दश्त में लाई है कि अब
अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं करना
नहीं आसमाँ तिरी चाल में नहीं आऊँगा
ये जो धुआँ धुआँ सा है दश्त-ए-गुमाँ के आस-पास
बिछड़ के ख़ाक हुए हम तो क्या ज़रा देखो
आया ही नहीं कोई बोझ अपना उठाने को