बिछड़ के ख़ाक हुए हम तो क्या ज़रा देखो
ग़ुबार जा के उसी कारवाँ से मिलता है
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नहीं आसमाँ तिरी चाल में नहीं आऊँगा
किसी से क्या कहें सुनें अगर ग़ुबार हो गए
यूँ ही कब तक ऊपर ऊपर देखा जाए
चढ़ा हुआ था वो दरिया अगर हमारे लिए
शोर हरीम-ए-ज़ात में आख़िर उट्ठा क्यूँ
रक़्स-ए-शरर क्या अब के वहशत-नाक हुआ
ज़ख़्म खाना ही जब मुक़द्दर हो
उठ जा कि अब ये मौक़ा हाथों से जा रहेगा
यहीं गुम हुआ था कई बार मैं
दामन को ज़रा झटक तो देखो
सवाद-ए-शाम न रंग-ए-सहर को देखते हैं