अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं करना
ये काम सहल बहुत है मगर नहीं करना
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सर-ब-सर पैकर-ए-इज़हार में लाता है मुझे
सवाद-ए-शाम न रंग-ए-सहर को देखते हैं
मैं बंद आँखों से कब तलक ये ग़ुबार देखूँ
मिलने दिया न उस से हमें जिस ख़याल ने
लोग कहते थे वो मौसम ही नहीं आने का
गुम-शुदा मैं हूँ तो हर सम्त भी गुम है मुझ में
आया ही नहीं कोई बोझ अपना उठाने को
मिरी इब्तिदा मिरी इंतिहा कहीं और है
कहाँ किसी को थी फ़ुर्सत फ़ुज़ूल बातों की
चढ़ा हुआ था वो दरिया अगर हमारे लिए
बदन-सराब न दरिया-ए-जाँ से मिलता है
तारीकी के रात अज़ाब ही क्या कम थे