चढ़ा हुआ था वो दरिया अगर हमारे लिए
तो देखते ही रहे क्यूँ उतर नहीं गए हम
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लोग कहते थे वो मौसम ही नहीं आने का
मिलने दिया न उस से हमें जिस ख़याल ने
अंधेरा सा क्या था उबलता हुआ
रक़्स-ए-शरर क्या अब के वहशत-नाक हुआ
मैं बंद आँखों से कब तलक ये ग़ुबार देखूँ
देखना ही जो शर्त ठहरी है
ये कैसा ख़ूँ है कि बह रहा है न जम रहा है
उस से मिलना और बिछड़ना देर तक फिर सोचना
फेंकते संग-ए-सदा दरिया-ए-वीरानी में हम
मिरी इब्तिदा मिरी इंतिहा कहीं और है
आया ही नहीं कोई बोझ अपना उठाने को
अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं करना