ये कैसा ख़ूँ है कि बह रहा है न जम रहा है
ये रंग देखूँ कि दिल जिगर का फ़िशार देखूँ
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तारीकी के रात अज़ाब ही क्या कम थे
ये शुग़्ल-ए-ज़बानी भी बे-सर्फ़ा नहीं आख़िर
वो इक सवाल-ए-सितारा कि आसमान में था
शोर हरीम-ए-ज़ात में आख़िर उट्ठा क्यूँ
अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं करना
ये जो धुआँ धुआँ सा है दश्त-ए-गुमाँ के आस-पास
उसे भुलाया तो अपना ख़याल भी न रहा
सर-ब-सर पैकर-ए-इज़हार में लाता है मुझे
लोग कहते थे वो मौसम ही नहीं आने का
सुना है शहर का नक़्शा बदल गया 'महफ़ूज़'
देखना ही जो शर्त ठहरी है