उसे भुलाया तो अपना ख़याल भी न रहा
कि मेरा सारा असासा इसी मकान में था
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लोग कहते थे वो मौसम ही नहीं आने का
उस से मिलना और बिछड़ना देर तक फिर सोचना
दामन को ज़रा झटक तो देखो
फेंकते संग-ए-सदा दरिया-ए-वीरानी में हम
ये शुग़्ल-ए-ज़बानी भी बे-सर्फ़ा नहीं आख़िर
ये जो धुआँ धुआँ सा है दश्त-ए-गुमाँ के आस-पास
बदन-सराब न दरिया-ए-जाँ से मिलता है
उठ जा कि अब ये मौक़ा हाथों से जा रहेगा
अंधेरा सा क्या था उबलता हुआ
मैं बंद आँखों से कब तलक ये ग़ुबार देखूँ
तारीकी के रात अज़ाब ही क्या कम थे