यहीं गुम हुआ था कई बार मैं
ये रस्ता है सब मेरा देखा हुआ
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ये जो धुआँ धुआँ सा है दश्त-ए-गुमाँ के आस-पास
लोग कहते थे वो मौसम ही नहीं आने का
वो इक सवाल-ए-सितारा कि आसमान में था
नहीं आसमाँ तिरी चाल में नहीं आऊँगा
मिलने दिया न उस से हमें जिस ख़याल ने
अंधेरा सा क्या था उबलता हुआ
यूँ ही कब तक ऊपर ऊपर देखा जाए
तारीकी के रात अज़ाब ही क्या कम थे
किसी से क्या कहें सुनें अगर ग़ुबार हो गए
उस से मिलना और बिछड़ना देर तक फिर सोचना