मिलने दिया न उस से हमें जिस ख़याल ने
सोचा तो उस ख़याल से सदमा बहुत हुआ
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उधर से आए तो फिर लौट कर नहीं गए हम
उसे भुलाया तो अपना ख़याल भी न रहा
चढ़ा हुआ था वो दरिया अगर हमारे लिए
दामन को ज़रा झटक तो देखो
नहीं आसमाँ तिरी चाल में नहीं आऊँगा
यूँ ही कब तक ऊपर ऊपर देखा जाए
किसी से क्या कहें सुनें अगर ग़ुबार हो गए
अंधेरा सा क्या था उबलता हुआ
फेंकते संग-ए-सदा दरिया-ए-वीरानी में हम
ये शुग़्ल-ए-ज़बानी भी बे-सर्फ़ा नहीं आख़िर
गुम-शुदा मैं हूँ तो हर सम्त भी गुम है मुझ में
उस से रिश्ता है अभी तक मेरा