किसी से क्या कहें सुनें अगर ग़ुबार हो गए
हमीं हवा की ज़द में थे हमीं शिकार हो गए
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रक़्स-ए-शरर क्या अब के वहशत-नाक हुआ
गुम-शुदा मैं हूँ तो हर सम्त भी गुम है मुझ में
ज़ख़्मों को अश्क-ए-ख़ूँ से सैराब कर रहा हूँ
आया ही नहीं कोई बोझ अपना उठाने को
शोर हरीम-ए-ज़ात में आख़िर उट्ठा क्यूँ
यहीं गुम हुआ था कई बार मैं
उठिए कि फिर ये मौक़ा हाथों से जा रहेगा
मिरी इब्तिदा मिरी इंतिहा कहीं और है
ज़ख़्म खाना ही जब मुक़द्दर हो
नहीं आसमाँ तिरी चाल में नहीं आऊँगा
दामन को ज़रा झटक तो देखो
सवाद-ए-शाम न रंग-ए-सहर को देखते हैं