हम को आवारगी किस दश्त में लाई है कि अब
कोई इम्काँ ही नहीं लौट के घर जाने का
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मैं बंद आँखों से कब तलक ये ग़ुबार देखूँ
किसी से क्या कहें सुनें अगर ग़ुबार हो गए
सुना है शहर का नक़्शा बदल गया 'महफ़ूज़'
सर-ब-सर पैकर-ए-इज़हार में लाता है मुझे
उठ जा कि अब ये मौक़ा हाथों से जा रहेगा
नहीं आसमाँ तिरी चाल में नहीं आऊँगा
ये जो धुआँ धुआँ सा है दश्त-ए-गुमाँ के आस-पास
मिलने दिया न उस से हमें जिस ख़याल ने
छोड़ो अब उस चराग़ का चर्चा बहुत हुआ
ये कैसा ख़ूँ है कि बह रहा है न जम रहा है
आया ही नहीं कोई बोझ अपना उठाने को