दरांती
जब चटानों से लिपटता है समुंदर का शबाब
'नदीम' जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी
कभी न पलटेगी बीती हुई घड़ी लेकिन
हमेशा ज़ुल्म के मंज़र हमें दिखाए गए
दिलों से आरज़ू-ए-उम्र-ए-जावेदाँ न गई
अक़ीदे
वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे
भरी दुनिया में फ़क़त मुझ से निगाहें न चुरा
तंग आ जाते हैं दरिया जो कुहिस्तानों में
मुझे तलाश करो
अपने माहौल से थे क़ैस के रिश्ते क्या क्या