दूर तेरी महफ़िल से रात दिन सुलगता हूँ
तू मिरी तमन्ना है मैं तिरा तमाशा हूँ
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अब न काबा की तमन्ना न किसी बुत की हवस
दिल के वीरान रास्ते भी देख
वो दास्ताँ जो तिरी दिल-कशी ने छेड़ी थी
वक़्त की बात
क़द ओ गेसू लब-ओ-रुख़्सार के अफ़्साने चले
कभी हयात का ग़म है कभी तिरा ग़म है
ख़ुश्क ख़ुश्क सी पलकें और सूख जाती हैं
जिस राह से भी गुज़र गए हम
तवील रातों की ख़ामुशी में मिरी फ़ुग़ाँ थक के सो गई है
अब इस के तसव्वुर से भी झुकने लगीं आँखें
दिन गुज़रता है कहाँ रात कहाँ होती है