दिल से दिल नज़रों से नज़रों के उलझने का समाँ
जैसे सहराओं में नींद आई हो दीवानों को
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अब इस के तसव्वुर से भी झुकने लगीं आँखें
क़द ओ गेसू लब-ओ-रुख़्सार के अफ़्साने चले
दर्द की बात किसी हँसती हुई महफ़िल में
ग़म-गुसारी
ज़िंदगी के वो किसी मोड़ पे गाहे गाहे
दिल के वीरान रास्ते भी देख
नज़्म
कभी तिरी कभी अपनी हयात का ग़म है
मैं सोचता हूँ ज़माने का हाल क्या होगा
वक़्त की क़ब्र में उल्फ़त का भरम रखने को
दूर तेरी महफ़िल से रात दिन सुलगता हूँ
हर एक बात के यूँ तो दिए जवाब उस ने