कुचल कुचल के न फ़ुटपाथ को चलो इतना
यहाँ पे रात को मज़दूर ख़्वाब देखते हैं
Wasi Shah
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सब ने माना मरने वाला दहशत-गर्द और क़ातिल था
वो जिन दरख़्तों की छाँव में से मुसाफ़िरों को उठा दिया था
काली रात के सहराओं में नूर-सिपारा लिक्खा था
मैं हूँ भी तो लगता है कि जैसे मैं नहीं हूँ
शबनम है कि धोका है कि झरना है कि तुम हो
जो दिख रहा उसी के अंदर जो अन-दिखा है वो शायरी है
जो हम पे गुज़रे थे रंज सारे जो ख़ुद पे गुज़रे तो लोग समझे
जो दिख रहा उसी के अंदर जो अन-दिखा है वो शाइरी है