हुए इस क़दर मोहज़्ज़ब कभी घर का मुँह न देखा
कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जा कर
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कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के
वस्ल हो या फ़िराक़ हो 'अकबर'
जवानी की है आमद शर्म से झुक सकती हैं आँखें
हल्क़े नहीं हैं ज़ुल्फ़ के हल्क़े हैं जाल के
बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए
एज़ाज़-ए-सलफ़ के मिटते जाते हैं निशाँ
इल्म ओ हिकमत में हो अगर ख़्वाहिश-ए-फ़ेम
कोट और पतलून जब पहना तो मिस्टर बन गया
दरबार1911
सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही
पब्लिक में ज़रा हाथ मिला लीजिए मुझ से
इस क़दर था खटमलों का चारपाई में हुजूम