किसी को अपने सिवा कुछ नज़र नहीं आता
जो दीदा-वर है तिलिस्म-ए-नज़र से निकलेगा
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हरीफ़-ए-गर्दिश-ए-अय्याम तो बने हुए हैं
तमाम आलम-ए-इम्काँ मिरे गुमान में है
हू-ब-हू आप ही की मूरत है
कोई नादीदा उँगली उठ रही है
इक लम्हे ने जीवन-धारा रोक लिया
रह-ए-गुमाँ से अजब कारवाँ गुज़रते हैं
काफ़िर था मैं ख़ुदा का न मुंकिर दुआ का था
नाम 'अकबर' तो मिरा माँ की दुआ ने रक्खा
कहते हैं हम उधर हैं सितारा है जिस तरफ़
शरार-ए-संग जो इस शोर-ओ-शर से निकलेगा
हवा सहला रही है उस के तन को
रात आई है बच्चों को पढ़ाने में लगा हूँ