हवा सहला रही है उस के तन को
वो शोला अब शरारे दे रहा है
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शरार-ए-संग जो इस शोर-ओ-शर से निकलेगा
ज़ोर-ओ-ज़र का ही सिलसिला है यहाँ
हँसी में साग़र-ए-ज़र्रीं खनक खनक जाए
हू-ब-हू आप ही की मूरत है
किसी को अपने सिवा कुछ नज़र नहीं आता
फ़नकार ब-ज़िद है कि लगाएगा नुमाइश
रात आई है बच्चों को पढ़ाने में लगा हूँ
इक लम्हे ने जीवन-धारा रोक लिया
कई आवाज़ों की आवाज़ हूँ मैं
नाम 'अकबर' तो मिरा माँ की दुआ ने रक्खा
अभी ज़मीन को हफ़्त आसमाँ बनाना है
दिल की गिर्हें कहाँ वो खोलता है