दुनिया कभी हो सकी न हमराज़ मरी
क्या जाने थी किस फ़ज़ा में पर्वाज़ मिरी
लहजा मैं किसी और का अपना न सका
ले डूबी मुझे मुनफ़रिद आवाज़ मिरी
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सच्चा दिया
यही सोच कर इक्तिफ़ा चार पर कर गए शैख़-जी
हाँ यही शहर मिरे ख़्वाबों का गहवारा था
मुसाफ़िरत का वलवला सियाहतों का मश्ग़ला
सर बस्ता हयात ज़ात गुंजान मिरी
शो'ले हैं कहीं तेज़ कहीं हैं मद्धम
हर शय ब हर अंदाज़ अलग होती है
बुरे भले में फ़र्क़ है ये जानते हैं सब मगर
ज़िंदान-ए-सुब्ह-ओ-शाम में तू भी है मैं भी हूँ
अता हुई किसे सनद नज़र नज़र की बात है
दश्त-ए-अदम का सन्नाटा
रस्ते ही में हो जाती हैं बातें बस दो-चार