बर्बाद सुकून-दर-ओ-दीवार न हो
बे-हुरमती-ए-कूचा-ओ-बाज़ार न हो
रोको रोको इन आँधियों को रोको
तहज़ीब का शामियाना मिस्मार न हो
Faiz Ahmad Faiz
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हर्फ़-ए-यक़ीं
फ़ित्ने अजब तरह के समन-ज़ार से उठे
मुश्किल ही से कर लेती है दुनिया उसे क़ुबूल
नफ़रत की हवा बन में चलाई किस ने
आँखों को देखने का सलीक़ा जब आ गया
छोड़ के माल-ओ-दौलत सारी दुनिया में अपनी
घुटन अज़ाब-ए-बदन की न मेरी जान में ला
वारिस
अजल सराए तीरगी
हिम्मत वाले पल में बदल देते हैं दुनिया को
कब फ़िक्र-ओ-ख़याल का असासा कम है
यही सोच कर इक्तिफ़ा चार पर कर गए शैख़-जी