मुश्किल ही से कर लेती है दुनिया उसे क़ुबूल
ऐसी हक़ीक़त जिस में फ़साना कम कम होता है
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सितम-ज़दा कई बशर क़दम क़दम पे थे
कुल आलम-ए-वुजूद कि इक दश्त-ए-नूर था
किस नहज से हम ने इक कहानी कह दी
ख़ुद-परस्ती ख़ुदा न बन जाए
जब सुब्ह की दहलीज़ पे बाज़ार लगेगा
अता हुई किसे सनद नज़र नज़र की बात है
रुत बदली तो ज़मीं के चेहरे का ग़ाज़ा भी बदला
अजल सराए तीरगी
जिन पे अजल तारी थी उन को ज़िंदा करता है
ये कौन मेरी तिश्नगी बढ़ा बढ़ा के चल दिया
निगह-ए-शौक़ से हुस्न-ए-गुल-ओ-गुलज़ार तो देख
वो पास हो के दूर है तो दूर हो के पास