न जाने कितनी बस्तियाँ उजड़ के रह गईं
मिले हैं रास्ते में कुछ मकाँ जले जले
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मुसाफ़िरत का वलवला सियाहतों का मश्ग़ला
नफ़रत की हवा बन में चलाई किस ने
हिसार-अंदर-हिसार
ज़िंदान-ए-सुब्ह-ओ-शाम में तू भी है मैं भी हूँ
कुल आलम-ए-वुजूद कि इक दश्त-ए-नूर था
कब फ़िक्र-ओ-ख़याल का असासा कम है
सर बस्ता हयात ज़ात गुंजान मिरी
बस इक तसलसुल-ए-तकरार-ए-क़ुर्ब-ओ-दूरी था
दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से
ख़ुद-परस्ती ख़ुदा न बन जाए
रस्ते ही में हो जाती हैं बातें बस दो-चार
आँख में आँसू का और दिल में लहू का काल है