पहुँच के जो सर-ए-मंज़िल बिछड़ गया मुझ से
वो हम-सफ़र था मगर हम-नज़र न था मेरा
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हाँ यही शहर मिरे ख़्वाबों का गहवारा था
फ़ित्ने अजब तरह के समन-ज़ार से उठे
दहकते कुछ ख़याल हैं अजीब अजीब से
ज़िंदान-ए-सुब्ह-ओ-शाम में तू भी है मैं भी हूँ
हर दुकाँ अपनी जगह हैरत-ए-नज़्ज़ारा है
मिलता नहीं मुझ को नक़्श अपना मुझ में
निगह-ए-शौक़ से हुस्न-ए-गुल-ओ-गुलज़ार तो देख
बस इक तसलसुल-ए-तकरार-ए-क़ुर्ब-ओ-दूरी था
न जाने कितनी बस्तियाँ उजड़ के रह गईं
दुनिया कभी हो सकी न हमराज़ मिरी
दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से
रस्ते ही में हो जाती हैं बातें बस दो-चार