कब फ़िक्र-ओ-ख़याल का असासा कम है
लिक्खा है बहुत लोगों ने सोचा कम है
हर चंद कमी नहीं है लफ़्ज़ों की मगर
लफ़्ज़ों के बरतने का सलीक़ा कम है
Gulzar
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बदन से रिश्ता-ए-जाँ मो'तबर न था मेरा
हाँ यही शहर मिरे ख़्वाबों का गहवारा था
दूर तक बस इक धुँदलका गर्द-ए-तन्हाई का था
सर बस्ता हयात ज़ात गुंजान मिरी
जब सुब्ह की दहलीज़ पे बाज़ार लगेगा
हिम्मत वाले पल में बदल देते हैं दुनिया को
अजल सराए तीरगी
आँख में आँसू का और दिल में लहू का काल है
यही सोच कर इक्तिफ़ा चार पर कर गए शैख़-जी
सायों से भी डर जाते हैं कैसे कैसे लोग
हिसार-अंदर-हिसार
दहकते कुछ ख़याल हैं अजीब अजीब से