मैं घुप अंधेरे में जा छुपा था
कि रौशनी मेरी जाँ की बैरी
मिरा तआक़ुब न करने पाए
मगर अंधेरे
गुरसना-जाँ अन्कबूत की शातिरी दिखा कर
मुझे नहीफ़-ओ-नज़ार पा कर
ख़ुद अपने जाले में कस के मेरे बदन को मिस्मार कर चुके थे!
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फ़ित्ने अजब तरह के समन-ज़ार से उठे
मुसाफ़िरत का वलवला सियाहतों का मश्ग़ला
बस इक तसलसुल-ए-तकरार-ए-क़ुर्ब-ओ-दूरी था
हिम्मत वाले पल में बदल देते हैं दुनिया को
ख़ालिक़ और तख़्लीक़
मिलता नहीं मुझ को नक़्श अपना मुझ में
बे-साल-ओ-सिन ज़मानों में फैले हुए हैं हम
नफ़रत की हवा बन में चलाई किस ने
मिरी शिकस्त भी थी मेरी ज़ात से मंसूब
हिसार-अंदर-हिसार
कुल आलम-ए-वुजूद कि इक दश्त-ए-नूर था
अता हुई किसे सनद नज़र नज़र की बात है