ख़ुद-परस्ती ख़ुदा न बन जाए
एहतियातन गुनाह करता हूँ
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हर शय ब हर अंदाज़ अलग होती है
शो'ले हैं कहीं तेज़ कहीं हैं मद्धम
दहकते कुछ ख़याल हैं अजीब अजीब से
न जाने कितनी बस्तियाँ उजड़ के रह गईं
जिन के नसीब में आब-ओ-दाना कम कम होता है
जब सुब्ह की दहलीज़ पे बाज़ार लगेगा
बस इक तसलसुल-ए-तकरार-ए-क़ुर्ब-ओ-दूरी था
मंजधार में हूँ पास किनारा भी नहीं
अजल सराए तीरगी
रस्ते ही में हो जाती हैं बातें बस दो-चार
सर बस्ता हयात ज़ात गुंजान मिरी
नए ख़ौफ़ का आज़ार