इंसाफ़ के पर्दे में ये क्या ज़ुल्म है यारो
देते हो सज़ा और ख़ता और ही कुछ है
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शिकवा इस का तो नहीं है जो करम छोड़ दिया
थीं तुम्हारी जिस पे नवाज़िशें कभी तुम भी जिस पे थे मेहरबाँ
हर शाख़-ए-चमन है अफ़्सुर्दा हर फूल का चेहरा पज़मुर्दा
दरिया नज़र न आए न सहरा दिखाई दे
उस को भड़काऊ न दामन की हवाएँ दे कर
इक़रार-ए-मोहब्बत तो बड़ी बात है लेकिन
आँसुओं के तूफ़ाँ में बिजलियाँ दबी रखना
फ़रेब-ख़ुर्दा है इतना कि मेरे दिल को अभी
तुम्हारी बज़्म की यूँ आबरू बढ़ा के चले
सुन के रूदाद-ए-अलम मेरी वो हँस कर बोले
दिल ही रह-ए-तलब में न खोना पड़ा मुझे
माइल-ए-लुत्फ़ है आमादा-ए-बे-दाद भी है