इक़रार-ए-मोहब्बत तो बड़ी बात है लेकिन
इंकार-ए-मोहब्बत की अदा और ही कुछ है
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दी उस ने मुझ को जुर्म-ए-मोहब्बत की वो सज़ा
लज़्ज़त-ए-दर्द मिली जुर्म-ए-मोहब्बत में उसे
कुछ इस तरह के बहारों ने गुल खिलाए हैं
हाँ ये भी तरीक़ा अच्छा है तुम ख़्वाब में मिलते हो मुझ से
माइल-ए-लुत्फ़ है आमादा-ए-बे-दाद भी है
फ़रेब-ख़ुर्दा है इतना कि मेरे दिल को अभी
अजीब उलझन में तू ने डाला मुझे भी ऐ गर्दिश-ए-ज़माना
कहाँ जाएँ छोड़ के हम उसे कोई और उस के सिवा भी है
मुझ को मंज़ूर नहीं इश्क़ को रुस्वा करना
तुम्हारी बज़्म की यूँ आबरू बढ़ा के चले
वफ़ा करो जफ़ा मिले भला करो बुरा मिले
तुम अपनी ज़बाँ ख़ाली कर के ऐ नुक्ता-वरो पछताओगे