मुझ को मंज़ूर नहीं इश्क़ को रुस्वा करना
है जिगर चाक मगर लब पे हँसी है ऐ दोस्त
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वफ़ा करो जफ़ा मिले भला करो बुरा मिले
लज़्ज़त-ए-दर्द मिली जुर्म-ए-मोहब्बत में उसे
शिकवा इस का तो नहीं है जो करम छोड़ दिया
ख़ुशी ही शर्त नहीं लुत्फ़-ए-ज़िंदगी के लिए
दिल ही रह-ए-तलब में न खोना पड़ा मुझे
एक ही अंजाम है ऐ दोस्त हुस्न ओ इश्क़ का
दरिया नज़र न आए न सहरा दिखाई दे
अश्क वो है जो रहे आँख में गौहर बन कर
मेरे किरदार में मुज़्मर है तुम्हारा किरदार
दी उस ने मुझ को जुर्म-ए-मोहब्बत की वो सज़ा
थीं तुम्हारी जिस पे नवाज़िशें कभी तुम भी जिस पे थे मेहरबाँ