फ़रेब-ख़ुर्दा है इतना कि मेरे दिल को अभी
तुम आ चुके हो मगर इंतिज़ार बाक़ी है
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अश्क वो है जो रहे आँख में गौहर बन कर
माइल-ए-लुत्फ़ है आमादा-ए-बे-दाद भी है
न समझ सकी जो दुनिया ये ज़बान-ए-बे-ज़बानी
देहात के बसने वाले तो इख़्लास के पैकर होते हैं
कुछ इस तरह के बहारों ने गुल खिलाए हैं
रह-ए-वफ़ा में लुटा कर मता-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर
लज़्ज़त-ए-दर्द मिली जुर्म-ए-मोहब्बत में उसे
इक़रार-ए-मोहब्बत तो बड़ी बात है लेकिन
नाले मिरे जब तक मिरे काम आते रहेंगे
तुम्हारी बज़्म की यूँ आबरू बढ़ा के चले
उस को भड़काऊ न दामन की हवाएँ दे कर